किसी ने देखा टूटा चाँद
अम्बर के कोने में सिमटा रूठा-रूठा चाँद
चिंगारी से रूठ गया हो जैसे घर का चूल्हा
मुझसे रूठ गया है चँदा ज्यों दुल्हन से दूल्हा
लाड़ लड़ाऊँ या फिर ख़ूब सुनाऊँ मीठा-कोसा
या उसके माथे पर रख दूँ इन आँखों का बोसा
दुनिया के हिस्से में आए मेरा जूठा चाँद!
पूरा, आधा और कभी तो दिखता है चौथाई
और कभी ग़ुम हो जाता; बदली की ओढ़ रज़ाई
ऐसे साजन से कोई भी कैसे प्रीत लगाए
इक पल में 'साथी'; दूजे पल में 'मामा' बन जाए
तीजे पल पलने में खेले चूस अँगूठा चाँद !
इतनी सी थी बात इसी पर रूठा है हरजाई
सबसे आँख बचाकर मिलने छत पर रात न आई
क्या बतलाऊँ, घात लगाए बैठा था ध्रुव तारा
मैंने जल्दी में उसको ही 'मेरा चाँद' पुकारा
सचमुच ही तबसे गुस्सा है झूठा-मूठा चाँद !
©मनीषा शुक्ला
हमारी भी सुन लो सरकार
खेतों के हल सड़कों पर उतरे बनकर हथियार
हम खेतों में सपने बोया करते हैं नेताजी
ख़ून-पसीने से लगती है हार-जीत की बाज़ी
भाषण सुनकर एक निवाला भी जो धरती देती
धरती के हर टुकड़े पर होती वोटों की खेती
लेकिन माटी पर चलते हैं मेहनत के औज़ार
एक फ़सल से एक पराली तक की कितनी दूरी
हो जाएगा कब बड़की बिटिया का ब्याह ज़रूरी
कब गेहूँ की बाली में सोने के फूल खिलेंगे
जाने कब वापिस लाला से गिरवी खेत मिलेंगे
हम कैलेंडर में पढ़ते हैं बस ये ही त्योहार
उस हरिया को भी तुमने आतंकी बतला डाला
पंचायत में जिसने तुमको पहनाई थी माला
धरती के बेटों पर तुमने फव्वारा चलवाया
देह गली माटी की, उस पल पानी बहुत लजाया
फिर कहते हो; तुम भी हो माटी की पैदावार
© मनीषा शुक्ला
हमीं से आएगा बदलाव;
जिन पेड़ों ने धूप चखी हो, वे ही देंगे छाँव !
जिन नदियों ने सीखा है पत्थर की देह गलाना
उनके ज़िम्मे है पर्वत पर ताज़ा फूल खिलाना
धरती की चोटी में सजती जिन मेघों की बूँदें
उनके पीछे चलती है पुरवाई आँखें मूँदें
केवल सूरज से डरते हैं अँधियारों के गाँव !
जिनके माथे पर सजता है मेहनत का अंगारा
उन आँखों में ख़ुश रहता है हरदम मोती खारा
जिनकी रेखाओं के घिसने से है माटी, सोना
उन हाथों की बाँदी किस्मत, क्या पाना, क्या खोना
नापेंगे इक रोज़ अमरता छालों वाले पाँव !
हर टुकड़े में जिसने पूरा-पूरा सच दिखलाया
पूरी दिखती है जिसमें अंधी आँखों की छाया
अच्छे और बुरे का जिसमें शेष नहीं आकर्षण
छाया जिसका धर्म उसी को मानेगा जग 'दर्पण'
ऐसे दर्पण पर ख़ाली है हर पत्थर का दाँव !
©मनीषा शुक्ला
करूँगी पूरा-पूरा प्रेम;
केवल कुछ दिन और लिखूँगी बाबुल का 'सरनेम'
आँगन का झूला गोदी में भरकर कहता मुझसे
जितना पाएगी, उतना ही छूट रहा है तुझसे
चौरे की तुलसी ने मुझको आज निहारा दिनभर
बिटिया! हम दोनों इक जैसे "घर में, घर से बाहर"
पिंजरे का मिट्ठू कहता है "हम दोनों हैं सेम"
सौंप रही है मुझको मेरा बचपन इक अलमारी
गुड़िया के शीशे ने हँसकर मेरी नज़र उतारी
हद से ज़्यादा मुस्काती हैं मेरी प्यारी सखियाँ
इनसे ज़्यादा बोल रही हैं इनकी भोली अँखियाँ
काश घड़ी ग़ायब कर देता 'पोषम-पा' का गेम
मेरे सपनों से ऊँचा है शादी का शमियाना
मेरा अम्बर माँग रहा है पँखों का नज़राना
मुझको देख सुबह से खिलते, रात सरीखे भरते
लेकिन बेटी तो बेटी है, माँ-बाबा क्या करते
दादी कहती पँख लगा कर उड़ जाता है 'टेम'
वर के चंदन और वधू की मेहंदी की हमजोली
'बन्ना-बन्नी', 'गारी' के गीतों की मीठी बोली
दरवाज़े पर वन्दनवार लिए मुस्काती कीलें
पलकों तक आ-आ कर लौटें नम आँखों की झीलें
कैसे इतनी याद समेटे फ़ोटो का इक 'फ्रेम'
©मनीषा शुक्ला
कल नदी के तीर पर दो दीप देखे मुस्कुराते
एक पल में सौ जनम के साथ की कसमें उठाते
कल जिएंगे या मरेंगे; ये न जाने क्या करेंगे
जब प्रणय के देवता अंगार फूलों पर धरेंगे
रेत पर सतिया बनाकर, चूमते हैं भाग्यरेखा
ये भला शुभ-लाभ वाली अटकलों से क्या डरेंगे
हैं बहुत भोले, न कुछ भी जानते हैं ये अभागे
बीत जाएगी उमर सरसों हथेली पर उगाते
कल ज़माना रीतियों की दे रहा होगा दुहाई
प्रेम के इस रूप को कुल मान लेगा जग-हँसाई
नेह के व्यापार में सम्बन्ध की बोली लगेगी
जीत जाएगी अँगूठी, हार जाएगी सगाई
बेबसी की चीख पर भारी पड़ेंगे मंत्र के स्वर
शव उठेगा हर वचन का, धूम से, गाते-बजाते
एक कोना मन हमेशा एक-दूजे से छिपाकर
ज़िन्दगी पूरी जिएँगे, रोज़ आधा प्यार पाकर
एक-दूजे में तलाशेंगे हमेशा तीसरे को
एक-दूजे को मिलेंगे ये हमेशा और कमतर
फिर किसी दिन ज़िन्दगी से आँख मिलने पर कहेंगे
एक समझौता हुआ था, बस उसी को हैं निभाते
©मनीषा शुक्ला
ऊब जाती है घड़ी ठहरा हुआ लम्हा बिताते
कट रहे हैं दिन किसी को याद करते, भूल जाते
फिर महक लेकर किसी की हैं सुबह ने केश धोए
रात भर रो कर गगन ने मोतियों के बीज बोए
फिर किसी तस्वीर के सब रंग फूलों में मिले हैं
उस हँसी में ही खनकती धूप ने आँचल भिगोए
रात का चंदा न जाने अब कहाँ, किस ठौर होगा
बीतता है दिन किसी के साथ सूरज को निभाते
फिर हुआ भारी किसी को याद करके साँझ का मन
दौड़कर परछाइयों के साथ कुछ थक-सा गया तन
रौशनी को दे विदाई लौटता सूरज अभागा
पोंछता है आँख, पानी में नदी के देख दरपन
टूटते ज़िंदा सितारे, प्रेम में असहाय होकर
रौशनी के वास्ते हैं चांद को ईंधन बनाते
फिर हवाएँ छेड़ती हैं गंध डूबी रातरानी
होंठ पर फिर कसमसाई एक भूली-सी कहानी
फिर अंधेरा चांदनी की चाशनी में घुल रहा है
लाँघता है फिर नयन की देहरी दो बून्द पानी
याद आई ज़िन्दगी के छंद से ख़ारिज जवानी
फिर कटेगी रात पूरी गीत कोई गुनगुनाते
©मनीषा शुक्ला
सजन तुम रूप, तुम्हीं यौवन
झाँकू रोज़ नयन में, देखूँ मनचाहा दरपन
चूल्हे में संसार पड़े; मैं मोती रोज़ लुटाऊँ
दूध नहाऊँ, पूत फलूँ मैं, सौ सौभाग कमाऊँ
धरती के चक्कर में चंदा, धरती चाहे सूरज
एक हमारी जोड़ी ही सबको लगती है अचरज
राम मिलाए जोड़ी अपनी ज्यों पानी-चंदन
तुमको नजर न लागे बालम बैरी हुआ जमाना
सीता, चंपा, मधुबाला की बातों में मत आना
तुमको देख खुला करता है महलों का चौबारा
गोरा रंग हुआ जामुन सा, ऐसे कौन निहारा
रोज़ तुम्हें अब लगवाऊँगी काजल का उबटन
जो थाली पर माता है, जो मधुमासों में रम्भा
वक़्त पड़े तो बन जाती है वो भी चंडी-अम्बा
साथ तुम्हारे जीना-मरना दोनों कर सकती हूँ
लेकिन तुमको बिन मारे मैं कैसे मर सकती हूँ?
रहना मेरी ओर सदा ओ 'थाली के बैंगन' !
©मनीषा शुक्ला
तुम गए जबसे, सुबह सूरज जलाना भूल बैठी
तुम गए तबसे, अंगीठी चाँद की ठंडी पड़ी है
तुम गए क्या, रात ने गेसू नहीं तबसे सँवारे
बिन तुम्हारे बोझ लगते हैं गगन को ये सितारे
तुम गए जबसे लहर ने होंठ अपने सी लिए हैं
तुम गए जबसे, नदी से दूर बैठे हैं किनारे
तुम गए जबसे, न कहती रात से कुछ रातरानी
तुम गए तबसे, बगीचे में हिना गूँगी खड़ी है
तुम गए तो खुशबुओं ने फूल से अनुबंध तोड़े
तितलियों ने रंग की कारीगरी के काम छोड़े
तुम गए जबसे, हवा ने पँख गिरवी रख दिए हैं
तुम गए, सब मंज़िलों ने रास्तों से हाथ जोड़े
तुम गए जबसे, न गाया गीत कोई भी हृदय से
तुम गए तबसे, अधर से बाँसुरी हरदिन लड़ी है
कर रहा मन ख़र्च कोई रोज़ तुमको याद करके
चुक गई है नींद सारी आँसुओं का ब्याज भरके
तुम गए हो, अब न तोड़ेंगी कभी उपवास आँखें
तुम गए, सब थम गया है, साँझ तक भी दिन न सरके
तुम गए जबसे, समय की देह नीली पड़ गई है
तुम गए तबसे, बहुत धीमी कलाई की घड़ी है
©मनीषा शुक्ला
तुम्हारी यादों का सामान
खिड़की को साँसे देता है, दीवारों को कान
हरजाई अख़बार कि जिससे घण्टों बतियाते हो
नासपिटी शतरंज, नहीं तुम जिससे उकताते हो
बैरी चश्मा पल भर को भी नैन न छोड़े ख़ाली
छूकर होंठ तुम्हारे आई चाय भरी ये प्याली
और तुम्हारी टेबल पर मुस्काता मीठा पान
तुम्हारी यादों का सामान
काट रही है बालकनी वनवास तुम्हारा दिन भर
गमले की चंपा की ख़ातिर सौत तुम्हारा दफ़्तर
अलग लगे दरवाज़े की घण्टी को छुअन तुम्हारी
और तुम्हारे बिन लगता है समय घड़ी को भारी
तुम लौटो तो आ जाती है घर में फिर से जान
तुम्हारी यादों का सामान
अधखुलती खिड़की से लिपटे पर्दे की उलझन में
तुम साँसों के चन्दन में, तुम नैनों के दरपन में
तुम तकिए की ख़ुश्बू में, तुम सिलवट में चादर की
तुम घर में, तुम में रहती है परछाईं इस घर की
नाम लिखी तख़्ती की भी है तुमसे ही पहचान
तुम्हारी यादों का सामान
©मनीषा शुक्ला
हर घड़ी जिसको लुटाती जा रही है भाग्यरेखा;
हो सके तो तुम सँजो लो!
जिस नयन में एक आँसू भी नहीं ठहरा ख़ुशी से
पढ़ रहे हैं होंठ जिसके, मंत्र तर्पण के अभी से
दान ऐसा; जो अखरता ही रहा बस याचना को
मौन ऐसा; कह न पाया बात अपनी जो किसी से
मर गया वह दुःख अभागा, आज भरकर आँख रो लो!
हो सके तो तुम सँजो लो!
एक सूरज के लिए जलता रहा आकाश सारा
और धरती माँगती ही रह गई कोई सितारा
बाँटनेवाला बहुत अनुदार अपनी भूमिका में
मिल गए दोनों जहाँ, पर दे न पाया वह किनारा
अब तुम्हीं बढ़कर ज़रा आकुल क्षितिज के पँख खोलो!
हो सके तो तुम सँजो लो!
अब समर्पित है तुम्हीं को, चाह लो या राह अपनी
धर्म ख़ुश्बू का बिखरना, कब उसे परवाह अपनी
तुम निठुर हो भी गए तो मन बनेगा आज बादल
ख़ूब बरसेंगे नयन जो सह न पाए दाह अपनी
आज इस गीले हृदय में प्रार्थना के बीज बो लो !
हो सके तो तुम सँजो लो!
©मनीषा शुक्ला
हर किसी की आँख में है एक टुकड़ा घर
पेट में ईंधन नहीं पर पैर चलते हैं
मंज़िलों की चाह में रस्ते मचलते हैं
दुधमुँहे को ख़ून देकर पालती ममता
धूप में तपते बदन को सालती ममता
रोटियों में देखती तस्वीर सपनों की
हाय! थकने ही न देती फ़िक़्र अपनों की
जीभ से बिखरे निवाले को उठाते जब
सीज जाता है सड़क का भी कलेजा तब
इस सफ़र को देख रोया मील का पत्थर
ख़ुद मुसाफ़िर हैं, बनाते दूसरों के घर
है थकन इनआम इनका, भूख है ज़ेवर
हर महल की नींव में, दीवार, ज़ीने में
हैं अजब ये लोग, हँसते हैं पसीने में
ज़िन्दगी है ख़्वाब, साँसे ही हकीक़त हैं
ये रहें ज़िंदा, यही इनकी ज़रूरत है
योजनाओं में हमेशा आख़िरी दिखता
शून्य, जिस पर देश का सारा गणित टिकता
गिनतियों में छूट जाता है यही अक्सर
पटरियों पर लाश 'शायद' आदमी की है
मौत से बदतर कहानी ज़िन्दगी की है
देह पर कुछ बोटियाँ जिनकी सलामत हैं
वो चुनावी वोट हैं, इतनी ग़नीमत है
लोग ज़िंदा थे, तरक़्क़ी बस यही तो थी
आदमी की ज़ात अब तक 'आदमी' तो थी
हर तरफ़ आँसू दिलासे को तरसते हैं
दीप जलते, फूल मातम पर बरसते हैं
हो गई छाती सियासत की बहुत ऊसर
©मनीषा शुक्ला
रात का मतलब अँधेरा ही न समझें पीढियां कल
जोत कर आकाश को चल रोप लें थोड़े सितारे
चाँदनी रिश्वत बिना कुछ भी नहीं करती यहाँ पर
इंच भर चढ़ती नहीं अब, हो गई है धूप अजगर
पर सुना है जुगनुओं में आज भी थोड़ी नमी है
एक विधवा साँझ को देते दिलासा, रोज़ जलकर
सीख जाएगी सियाही आँसुओं से बात करना
बस इसे काजल बनाकर बाँध आँखों के किनारे
गिर चुकी ईमान से, आँधी बनीं सारी हवाएँ
दे रही हैं मश्विरा, हम दीप से घर को बचाएँ
पेट भरना तो नहीं केवल ज़रूरत आदमी की
है ज़रूरी, धान के संग आज अँगारे उगाएँ
बदलियों के केश उलझा चाँद पूजें हम भला क्यों
आज करवाचौथ सोचे, आज यह पूनम विचारे
ये बयां है रोशनी का आँख में पलती रहेगी
आग का उबटन निशा की देह पर मलती रहेगी
एक चिन्गारी बड़ी नादान, उसने ठान ली है
जिस तरफ़ होगा अँधेरा, उस तरफ़ चलती रहेगी
वो न जागा, तो न होगी भोर, समझेगा उजाला
साथ सूरज के अगर मन डूब जाएँगे हमारे
© मनीषा शुक्ला
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